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लखनऊ व सैफई महोत्सव के जरिए जनता की जेब काट रही है उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार
December 1, 2014 mediakhabar
लखनऊ महोत्सव हो या सैफई महोत्सव, ये महोत्सव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
दोनों ही रूप से आम जनता की जेब काटने का माध्यम मात्र बनकर रह गए हैं .
एक तरफ सत्ताधारी राजनैतिक दल इन महोत्सवों को अपने राजनैतिक एजेंडे को
जनता तक पंहुचाने के माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने में कोई कोर -कसर
नहीं छोड़ रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ सरकारी अधिकारी 'कमीशन-तंत्र' और
'भाई-भतीजावाद-तंत्र' के सहारे अपने निजी हित साध रहे हैं जिसके परिणाम
स्वरुप बच्चों का मन रखने के लिए इन महोत्सवों में जाने बाली आम जनता
बदइन्तजामियों के बाबजूद अपनी जेब कटाने को मजबूर है तो वहीं इन
महोत्सवों में न जाने बाली आम जनता की जेब इन महोत्सवों के आयोजनों पर
सरकारी खजाने से होने बाले खर्चों के चलते स्वतः ही कट रही है . एक साल
बाद भी महोत्सवों के खर्चे,आय आदि की सूचना पर अखिलेश के अफसर कुण्डली
मारे बैठे हैं और इन सूचनाओं को आरटीआई में भी न दिए जाने से अखिलेश
सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लग रहे हैं .
सामाजिक संगठन 'तहरीर' के संस्थापक लखनऊ निवासी सामाजिक कार्यकर्ता और
इंजीनियर संजय शर्मा द्वारा बीते साल 26 दिसंबर को मुख्यमंत्री कार्यालय
में आरटीआई दायर कर सैफई महोत्सव और लखनऊ महोत्सव के खर्चे,आय आदि की
सूचना माँगी गयीं थीं . साल बीत गया और नया दिसंबर आ गया और 1 साल बाद
फिर आ गए महोत्सव पर अब तक संजय के पास महोत्सवों के खर्चे की सूचना नहीं
आयीं हैं . बीते 17 नवम्बर को उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग ने यूपी के
सांस्कृतिक विभाग, स्थानीय निकाय के निदेशक और लखनऊ नगर निगम आयुक्त को
प्रतिपक्षी बनाकर सूचना देने और अगली सुनवाई की तिथि 27 जनवरी 2015
निर्धारित की है .
संजय ने महोत्सवों के आयोजनों में खर्चे की सूचना साल बाद भी नहीं देने
पर अखिलेश सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगाते हुए इन आयोजनों में
सत्ताधारी राजनैतिक दल द्वारा इन महोत्सवों को अपने राजनैतिक एजेंडे को
जनता तक पंहुचाने के माध्यम के रूप में इस्तेमाल करके सत्ता के दुरुपयोग
पर रोक लगाने , सरकारी अधिकारियों के 'कमीशन-तंत्र' और
'भाई-भतीजावाद-तंत्र' के भ्रष्टाचार के सहारे अपने निजी हित साधने की
जांच कराने और इन महोत्सवों को इनके प्राकृतिक स्वरुप में मनाने की मांग
के साथ सूबे के राज्यपाल से मिलने की बात कही है .
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